टूटी हुई आस बचाने को आजा
दिल में बसी याद मिटाने को आजा
अपनी मुहब्बत में बनाया था जो कभी हसीं ताजमहल
आ आज वही ईमारत गिराने को आजा
कभी मुझे जायदाद सी लगती थी मुहब्बत अपनी
प्यार की ईमारत में दरार आ जाएगी सोचा ना था
कभी हमने अपने आने वाले पलों को
झाड़ फानूस के गलीचों सा सजाया था
उन पर धूल जम जाएगी ,सोचा ना था
क्या मुमकिन नहीं उन्हें फिर से सजाना ?
क्या मुमकिन नहीं उन सपनो को फिर से बुन पाना ?
अगर नहीं, तो फिर तुम मेरी जिंदगी में आये ही क्यूँ ?
आये भी थे तो रूह में इस कदर समाये ही क्यूँ ?
क्या मुमकिन है रूह का शरीर से जुदा हो जाना ?
क्या मुमकिन है मेरा बिन तुम्हारे जी पाना ?
लेकिन जी रही हूँ सिर्फ एक आस लेकर
अपनी यादों के टूटे फूटे खंडहरों के साथ ...
तुम्हारे इंतज़ार में.... तुम्हारे प्यार में ..........
_____________अंजना चौहान ____________