Fursat ke pal

Fursat ke pal

Sunday 13 May 2012

कुछ सामाजिक बुराइयाँ जिनसे हम चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं .....
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जिंदगी एक नूर है
किसी के लिए सुरूर है
किसी का गुरूर है
तो किसी के लिए कसूर है
जिंदगी एक नूर है ..............
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माँ की कोख में अजन्मी
गर हो बालिका
इसमें उसका क्या कसूर है ....

माँ इसमें क्या गलती है मेरी
माँ मै भी हूँ अंश ही तेरा
मैं भी गोद में चाहती खेलना तेरी
मैं भी चाहती पिता का हो सर पर हाथ
पर मैंने तो रौशनी की एक किरण न पायी
न मैं तेरी कोख में खुद अपनी मर्जी से आई
क्यों बना मेरा जीवन फिर अभिशाप
मैं एक कन्या हूँ
क्या यही मेरा कसूर है
क्या यही जिंदगी का दस्तूर है .......
जिंदगी एक नूर है
किसी के लिए सुरूर है
किसी का गुरूर है
तो किसी के लिए कसूर है
जिंदगी एक नूर है ..............
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कोठे पर बैठी हर कली
किसी के आँगन की हूर है ...

मैं थी इस दुनिया से अनजान
एक अबोध बालिका जो पहुँच गयी
एक ऐसे शमशान
न जाने कितनी ही बार
एक एक रोज में सौ -सौ बार मरा करती हूँ
मैं भी चाहती थी सखियों संग बातें करना
मैं भी चाहती थी घर का प्यारा सा आँगन
फिर क्यों मुझे मिला ये नरक सा जीवन
क्या मैं एक लड़की हूँ
बस यही मेरा कसूर है
क्या मुझ जैसी तमाम लड़कियों पर
पैसे लुटाना यही पैसे वालों का दस्तूर है
जिंदगी एक नूर है
किसी के लिए सुरूर है
किसी का गुरूर है
तो किसी के लिए कसूर है
जिंदगी एक नूर है ............
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जो जवानी में हुई विधवा
इसमें मेरा क्या कसूर है ...

मैं भी चाहती हूँ
मेरे जीवन में हों सारे रंग
मिलता सिर्फ तानो भरा जीवन
मैं भी चाहती साथ किसी का
अब कैसे कटे पहाड़ सा जीवन
विधाता का विधान ही ऐसा
जो वो साथ छोड़ कर चले गए ..
जब आदमी विवाह कर सकता है फिर से
तो हम स्त्री ही क्यूँ पुनर्विवाह को तरसें
मैं एक स्त्री हूँ
क्या यही मेरा कसूर है

जिंदगी एक नूर है
किसी के लिए सुरूर है
किसी का गुरूर है
तो किसी के लिए कसूर है
जिंदगी एक नूर है ............

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