Fursat ke pal

Fursat ke pal

Monday, 14 May 2012

...बुजुर्गों की अनदेखी ......
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जिंदगी का ये कैसा चलन हो चला है
 बुजुर्गों पर जुल्म प्रचलन हो चला है

रुकते न आंसू और ये तन रो चला है
इतना ढाया सितम अब ये मन रो चला है

बुजुर्गों पर कैसा सितम हो चला है
बचे प्राण रहमों - करम हो चला है

पीढ़ीयों का अनुवांशिक लक्षण हो चला है
रोते रोते यूँ बूढा वजन ढो चला है

कोने में एंटीक सामान हो चला है
यही जीवन उसपे मेहरबान हो चला है

मैले कपड़ों सा मैला मन हो चला है
निबटने का जल्दी जतन हो चला है

झुंकी सी कमर ढीला बदन हो चला है
बच्चों के नाम उसका धन  हो चला है 

जुल्म अपनों के बूढा खेता चला है
दुआएं उन्ही को फिर भी देता चला है

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