धुप
छाव सा मेरा जीवन
कभी
नरम तो कभी गरम
कभी
विस्तार पटल पर फैले से रिश्ते
तो
कभी सिमट से आये रिश्तों में खुद को पाते हम
कैसे
बीत चला था जीवन
बहुत
सी जिम्मेदारी निभाने में
कैसे
खुद को खो चुके थे हम
सब
की खोई खुशियों को लौटने में
आइना
देखा जब बालों में
हलकी
सी सफेदी दी दिखलाई
उम्र
दर उम्र कैसे बढती चली गयी
सोचा
पर फिर भी समझ न पायी
अफ़सोस
भी कर कर क्या होगा
जब
लौट नहीं सकते वो पल
बचे
खुचे जीवन को हमने
फिर
अपने लिए ही जीने की सोची
लेकिन
थे आदत से मजबूर
तो
वो सोच भी क्यूँ कर पूरी होती
बस
यही सोचते सोचते
मैं
यादों के झरोखे से बाहर आई
सामने
जिम्मेदारी खड़ी थी मुंह बाए
बहुत सुंदर दीदी
ReplyDeletegreat lines.
ReplyDeletedhanyavaad sir
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