Fursat ke pal

Fursat ke pal

Monday 28 May 2012


टूटी हुई आस बचाने को आजा
दिल में बसी याद मिटाने को आजा
अपनी मुहब्बत में बनाया था जो कभी हसीं ताजमहल
आ आज वही ईमारत गिराने को आजा

कभी मुझे जायदाद सी लगती थी मुहब्बत अपनी
प्यार की ईमारत में दरार आ जाएगी सोचा ना था
कभी हमने अपने आने वाले पलों को
झाड़ फानूस के गलीचों सा सजाया था
उन पर धूल जम जाएगी ,सोचा ना था
क्या मुमकिन नहीं उन्हें फिर से सजाना ?
क्या मुमकिन नहीं उन सपनो को फिर से बुन पाना ?
अगर नहीं, तो फिर तुम मेरी जिंदगी में आये ही क्यूँ ?
आये भी थे तो रूह में इस कदर समाये ही क्यूँ ?
क्या मुमकिन है रूह का शरीर से जुदा हो जाना ?
क्या मुमकिन है मेरा बिन तुम्हारे जी पाना ?

लेकिन जी रही हूँ सिर्फ एक आस लेकर
अपनी यादों के टूटे फूटे खंडहरों के साथ ...
तुम्हारे इंतज़ार में.... तुम्हारे प्यार में ..........

_____________अंजना चौहान ____________



Tuesday 22 May 2012

मेरा एक पहला प्रयास .....
********************
तुम्हें चेहरा पढ़ लेने की आदत है 
मुझे चेहरा छुपाने की आदत नहीं |

मेरे उन छुपे लफ़्ज़ों का क्या होगा 
जो दिल में जज़्ब है पर इबादत नहीं |

जब तुम दिल के करीब ला सकते हो 
क्यूँ दिल में समाने की इजाजत नहीं |

जो गर तेरा प्यार ही तेरी पूजा है 
तो मेरा प्यार भी कोई शरारत नहीं |

तुझे नखरे दिखाने की आदत बहुत 
मेरे नखरों में भी कम अदावत नहीं |

तेरे प्यार पाने को मर मिटे सनम 
यह सिर्फ प्यार है कोई शहादत नहीं |

जब तुम दिल की जबाँ पढ़ लेते हो 
हमें लफ्जों में कहने की आदत नहीं 

Monday 21 May 2012

उसका स्पर्श पाते ही
प्रणय की धारा फूटी
बसंत ऋतु से बासन्ती
रंग में रंगी
वो प्रेयसी मेरी
स्पर्श पा उसका
अंग -अंग बोले
धड़कने बढ़ने लगीं
कामना के आगोश में
हो भाव विव्हल
कर चेतना के द्वार बंद
हम आलिंगन भर कर
प्रेयसी में डूब
कर रहे चिंतन
कैसे खो गए सयंम
करके उनका आलिंगन
ये वियोगी भी
डूब रहा
मधुमास में
समां रही वो
अंतर्मन में
इस छोर से उस छोर
उसका स्पर्श पाते ही

जब भी कलम उठाती हूँ 
कुछ भी लिख न पाती हूँ 
कुछ बिखरा हुए शब्दों को 
अपने ही इर्द गिर्द पाती हूँ 
समेटना चाहती हूँ खयालो को 
फैले हैं ये चारों तरफ
कुछ समेटती हूँ तो कुछ में 
गहरे उलझ जाती हूँ 
जब भी कलम उठती हूँ 
खुद को लिखने में 
असमर्थ ही पाती हूँ 
सोचती  हूँ लिखूं 
सखियों के बारे में तो 
लड़कपन में पहुँच 
जाती हूँ 
वो हंसी ठिठोली 
वो अल्लाहडपन पेड़
कक्षा से बंक मार 
केन्टीन से समोसे खाना
यही सब बातें याद करते हुए
बस विचारों में खो जाती हूँ
क्या लिखूं क्या छोड़ू
कुछ समझ न पाती हूँ
बस लिखने में फिर से
खुद को असमर्थ ही पाती हूँ
जब भी लिखने बैठूं
विचारों में गहरे  
उलझ जाती हूँ  
लिखने बैठती हूँ कुछ 
और लिख कुछ जाती हूँ 


तुम आये मेरे जीवन में नव चेतना का संचार हुआ 
हाँ मैं तुमसे कह सकती हूँ मुझको तुमसे प्यार हुआ 
ये मन हिलोरे लेता है भावनाओं में मैं बह सी चली 
खिल रही है डाली डाली मन उपवन की कली कली
मन भौरा सा भ्रमित हुआ जाता है तेरा प्यार पाकर 
ना जी पाउंगी जिंदगी अकेले मैं प्रिये तुझे अब खोकर 

_____________अंजना चौहान ____________

Sunday 20 May 2012

बस तुम ही तुम

जिधर भी देखूं
बस तुम ही तुम
नज़र आते हो
मेरी हर फिजा में
तुम चुपके से
आकर बस जाते हो
मेरी साँसों में तुम
गहरे समाये हो
रूह का रिश्ता ही
कुछ ऐसा बना
तुम अब दो जिस्म
एक जान बन आए हो
हर जनम में मैं
बस तेरा साथ
यूँ ही चाहती हूँ
जैसे अपनाया इस
जन्म में, हर जन्म में
बस तुझको ही
पाना चाहती हूँ .

Friday 18 May 2012


जिंदगी है कैसी मकड़ जाल सी 
कभी उलझी तो कभी सुलझी 
कभी है दुश्मन तो कभी सहेली 
कभी खुली किताब तो है कभी पहेली 
कभी प्रश्नसूचक सी सवाल उठाती
कभी खुद ही खुद सारे उत्तर बताती
अनुभव बहुत फिर भी रोज ही उलझ जाती
विचारों का ताना बना मैं बस रोज यूँ ही बुनती जाती 
जिंदगी "थान" सी  मैं रोज तह कर लगाती 
जितना समेटूं फिर भी फैला ही पाती 
जिंदगी कभी खिला गुलाब
कभी "सिर्फ" काँटों का साथ 
कभी नागवार तो कभी खुशगवार 
अभी है मासूम तो कभी यौवन से भरपूर 
हाँ ये जिंदगी है बस ये मकड़ जाल सी 
.......एक अबूझ पहेली ....

Tuesday 15 May 2012


धुप छाव सा मेरा जीवन
कभी नरम तो कभी गरम
कभी विस्तार पटल पर फैले से रिश्ते
तो कभी सिमट से आये रिश्तों में खुद को पाते हम
कैसे बीत चला था जीवन
बहुत सी जिम्मेदारी निभाने में
कैसे खुद को खो चुके थे हम
सब की खोई खुशियों को लौटने में
आइना देखा जब बालों में
हलकी सी सफेदी दी दिखलाई
उम्र दर उम्र कैसे बढती चली गयी
सोचा पर फिर भी समझ न पायी
अफ़सोस भी कर कर क्या होगा
जब लौट नहीं सकते वो पल
बचे खुचे जीवन को हमने
फिर अपने लिए ही जीने की सोची
लेकिन थे आदत से मजबूर
तो वो सोच भी क्यूँ कर पूरी होती
बस यही सोचते सोचते
मैं यादों के झरोखे से बाहर आई
सामने जिम्मेदारी खड़ी थी मुंह बाए


बहता निर्मल नीर नदिया का
मिटती प्यास जिससे सबकी है
खग नभ में विचरण करते हैं
धरती का वो मन हरते हैं
सूर्य अपनी किरने चमकाता
इस संसार को उज्जवल कर कर देता
चंदा नित्य निशा संग आता
अंधकार में अपनी शीतल चांदनी फैलाता
मीन नीर बिन रह नहीं पाए
वह जीवन जल ही में पाए
मयूर मुग्ध हो नृत्य दिखलाए
नृत्य से उसके उपवन सज जाए
समीर मंद मंद मुस्करा कर बहता
सबके मन को वो मोह लेता
मेघा घुमड़ घुमड़ कर बरसे
बहता निर्मल नीर नदिया का
मिटती प्यास जिससे सबकी है
खग नभ में विचरण करते हैं
धरती का वो मन हरते हैं
सूर्य अपनी किरने चमकाता
इस संसार को उज्जवल कर कर देता
चंदा नित्य निशा संग आता
अंधकार में अपनी शीतल चांदनी फैलाता
मीन नीर बिन रह नहीं पाए
वह जीवन जल ही में पाए
मयूर मुग्ध हो नृत्य दिखलाए
नृत्य से उसके उपवन सज जाए
समीर मंद मंद मुस्करा कर बहता
सबके मन को वो मोह लेता
मेघा घुमड़ घुमड़ कर बरसे
बावरा मोरा मन भीगने को तरसे


दूर कहीं इक कोने में
कुछ दर्द में डूबा हुआ
कुछ मायूस कुछ परेशां सा
वो खोया खोया सा भाव भ्रमित सा लगे
कुछ तड़पता सा है कुछ टुटा हुआ
दूर एक कोने में वो रोता हुआ बैठा हुआ

है कुछ लाचार सा
वेदना मिश्रित सा ,चेहरा से पीड़ा दिखे
अपने में ही खोया हुआ
भीड़ में भी तनहा दिखे
घुटनों में सर दे कर सुबकता हुआ
दूर एक कोने में वो मासूम बैठा हुआ

है अनाथ अनाम  निरपराध सा
वो  अपना सा लगे
अधुरा सा उसका कोई सपना लगे
जी चाहे अंजुली में रख उसके मुख को
पूछूँ कुछ तो कुछ पीड़ा बँटे
यूँ देख उसकी ओर देख मेरी भी पीड़ा बढे
दूर एक कोने में वो सिसकता हुआ

है कुछ अल्लढ़ सा कुछ नादान सा
है वो थोडा भोला भला सा
एक शून्य की ओर ताकता सा
है कुछ टीस उसके सीने में
वो निर्दोष निष्पाप लगे
दूर एक कोने में वो बैठा सुबकता हुआ


दर्द भरा मौसम है करूँ शिकवा शिकायत किससे
तेज आंधी में तो बड़े पेड़ भी जड़ से उखड जाते हैं 
चोट खाके भी जीते हैं तो क्यों न जियें 
मैं तो वो पेड़ हूँ जो हर आंधी में खड़े रह जाते हैं 
घने कोहरे की चादर दूर तलक फैली है 
हर धुंधली तस्वीर बस उसकी ही नज़र आती है 
इन तस्वीरों में से उसकी तस्वीर उठाऊं कैसे 
इस बिगड़े मौसम के मिजाज़ को मनाऊं कैसे 
अब ये दिले दास्ताँ उसको बताऊँ कैसे 
दो घडी रो लिया दिल टूटने पर मैं भी तो क्या 
जलजले में तो बसे शहर भी उजड़ जाते हैं 
मैं ना छोड़ू अपने ग़मों के निशाँ अपने पीछे 
मैं वो दिया हूँ जो तेज हवाओं में भी जल जाते हैं 
जिन्हें देखा था खुआबों में वो हकीकत में भी नज़र आते हैं 
हम वो बदनसीब हैं जो मिलते ही बिछड जाते हैं 
जो वो ना समझे मेरी वफ़ा को तो करूँ गिला किससे 
ये वो दिल है जो जमी बर्फ में भी पिंघल जाता है 
वो ढूंढ़ते हैं आंसुओं की लकीरों को हमारे चेहरे पर 
पर ये वो आंसूं है जो बारिश के साथ में ही धुल जाते हैं 


मैं हूँ नागफनी ...
जो भी छु ले तो ...
सहस्त्रों काँटों सी .....
चुभ जाती हूँ ....
सब पौधों से जुदा न जाने क्यूँ
मैं बागीचे में एक अलग कोने में ही
जगह पाती हूँ
नहीं समझ पाती .....
ये बेरहम इंसान मुझसे
इतनी बेरुखी करता क्यूँ
मुझमें भी मासूमियत है
मैं भी फूल खिला सकती हूँ
मुझमें भी एक सुकोमल
अहसास पनपता है
हाँ मैं नागफनी हूँ
जिसमें कभी कभी फूल भी खिलता है
रंग बिरंगापन मैं भी जानती हूँ दिखलाना
जानती हूँ बागीचे को कई रंगों से सजाना
पर फिर भी व्यथा मेरी ....
ये मेरा माली .......
मुझे अन्य पौधों से जुदा रखता क्यूँ
हाँ मैं नागफनी हूँ .....
जिसमें कभी कभी
फूल भी खिलते हैं ......


जिंदगी का कोई लम्हा बड़ा हसीं होता है .....
जब जब भी याद आता है फिर से सजीव हो जाता है  ....
**************
वो दोस्तों की दोस्ती
वो बचपन की मस्ती
वो शोरगुल वो अल्हडपन
हाँ वही लम्हा
न चिंताओं का साथ
ना ही  परेशानी
याद जब भी आता है
फिर से उसी बचपन में लौटने को ललचाता है
**************
वो उनका पहली बार मिलना
वो रूठना शर्माना
कभी खिलखिला के हसना
कभी गुस्से से झिडकना
हाँ वही लम्हा
मैं उनसे मिलने को दीवाना
दिल फिर से जवां होना चाहता है
**************
वो बेबसी का आलम
उनसे मिलने का बहाना
वो उसके घर की शहनाई
मेरा बारात लेकर जाना
हाँ वही लम्हा
मेरा कनखियों से उसको दुल्हन के लिबास में देखना
फिर से उसी शहनाई की याद दिलाता है
**************
वो मेरी बेकरारी
वो उनके पाँव भारीवो
कब गूंजेगी किलकारी
कब आएगी नन्ही प्यारी
हाँ वही लम्हा
उसका नाजुक स्पर्श और मेरा गोद में उठाना
फिर से मुझे बच्चा होने का अहसास कराता है
जिंदगी का कोई कोई लम्हा बड़ा हसीं होता है
याद जब भी आता है फिर सजीव होता है
***************
anjana chauhan

Monday 14 May 2012

तेरे मेरे बीच की खाई को अक्सर
तुम्हारे ये शब्द सेतु पाट दिया करते थे
क्यूँ तुम्हारी कलम कुछ कहती नहीं आजकल, हैरान हूँ
तुम्हारे शब्दों से कई बार तुम्हारा अंतर्मन भी पढ़ लेती थी मैं
जीवन में जगह न भी दी तो क्या
तुम्हारे शब्दों के ताने बाने में मैं ही तो थी
तुम्हारे शब्दों से तुम्हारे इर्द गिर्द
खुद का वजूद सा समझ इसी में खुश थी मैं
फिर क्यों तुम्हारी कलम खामोश हो गयी
कई दिनों से तुम्हारा कोई पत्र न पा मन व्याकुल हुआ
पता चला तुम अब नहीं रहे
तुमसे तो तुम्हारी मजबूरियां पहले ही दूर कर चुकी थीं मुझे
ऐसा प्रतीत हुआ मानो
मैं खुद से भी आज दूर हो गयी प्रिये
एक तुम ही तो थे जो मुझे मेरे होने का अहसास दिलाते थे
तुम्हारे शब्द ही तो सहारा थे मेरे जीने का
फिर क्यों तुम कुछ लिखते नहीं अब मेरे लिए
इतनी दुखी तो मैं तब न थी जब तुमने
मुझे छोड़ किसी और को अपनाया था
मेरा हाथ छोड़ किसी और का हाथ थमा था
क्योंकि मैं जानती थी तुम न सही तुम्हारी रूह तो मेरे ही पास थी
खुद को समझा लिया था मैंने
लेकिन तुम तो हमेशा हमेशा के लिए
सो गए ऐसी नींद कभी न उठ पाने को
अब मैं अपना दुखड़ा कहूँ भी तो कहूँ किससे
सब अनजान है तेरे मेरे इस रिश्ते स
जब आँगन में गौरैय्या (चिड़िया)चीं चीं करती आती थी
अब बीते कल की बात हुई
प्यारा सा नन्हा सा वो घोंसला जो बागीचे में वो बनती थी
अब बीते कल की बात हुई
नहीं दीखते अब वो नन्हे चूजे जो अन्डो को फोड़ निकल कर आते थे
"वो द्रश्य अब स्वप्नों की बात हुई "
जब चिडिया को चूजे को चोंच से दाना खिलाते देखा करते थे
दूर दूर तक उड़ कर चिड़िया दाना चुग कर लाती थी
अब वो यादों की बात हुई
सुबह सुबह की चिड़िया की मधुर ध्वनि धीरे धीरे विलुप्त हुई जाती है
प्रकृति की ये अनमोल धरोहरे खोते हुए मानव को क्यूँ शर्म नहीं आती है
याद आता है चिड़िया का रेत के ढेर पर मस्ती करते देखना
कभी याद आता है दाना डालते ही चिड़िया का झुरमुठ उस पर मंडराना
क्यूँ हम इन्हें सहेजने में असमर्थ हुए जाते हैं
अपने निज स्वार्थ में लग हम सब कुछ अनदेखा कर जाते हैं
कब समझेगा मानुष कि पक्षी को भी घरोंदा चाहिए
रोक लगा दो पेड़ों के काटने पर अब कोई भी पेड़ न कटना चाहिए
...बुजुर्गों की अनदेखी ......
****************************************
जिंदगी का ये कैसा चलन हो चला है
 बुजुर्गों पर जुल्म प्रचलन हो चला है

रुकते न आंसू और ये तन रो चला है
इतना ढाया सितम अब ये मन रो चला है

बुजुर्गों पर कैसा सितम हो चला है
बचे प्राण रहमों - करम हो चला है

पीढ़ीयों का अनुवांशिक लक्षण हो चला है
रोते रोते यूँ बूढा वजन ढो चला है

कोने में एंटीक सामान हो चला है
यही जीवन उसपे मेहरबान हो चला है

मैले कपड़ों सा मैला मन हो चला है
निबटने का जल्दी जतन हो चला है

झुंकी सी कमर ढीला बदन हो चला है
बच्चों के नाम उसका धन  हो चला है 

जुल्म अपनों के बूढा खेता चला है
दुआएं उन्ही को फिर भी देता चला है
उदासी भी क्या होती है
इंसान को बहुत सी बातें
सोचने पर मजबूर कर देती है ...
क्यों हम अपने इर्द गिर्द
ऐसा वातावरण बना लेते हैं
क्या सोचा है कभी
क्यों ख़ुशी को छोड़
ग़मों को अपना लेते हैं
लेकिन क्यूँ ओढ़नी गम की चादर
क्या मिलता है ग़मों को अपनाकर
कुछ नहीं ....कुछ भी तो नहीं
तो फिर क्यों सोचना ऐसा
जिससे न मिले एक कौड़ी न मिले एक पैसा
सब अपने दुखों को भूल जाओ
गमो को छोड़ ख़ुशी को अपनाओ
फिर देखो कैसे चारों तरफ खुशहाली होगी
कोई न होगा मायूस ,न कहीं तंगहाली होगी
जितना पाओ उसी में खुश हो जाओ
बुराई को छोड़ अच्छाई को अपनाओ
बड़ों का करो सम्मान और छोटों से सम्मान पाओ
अच्छे अच्छे काम करो और प्रभु में ध्यान लगाओ
क्यों भूल गए तुम उन लम्हों को
जब हम पहरों एक दूजे संग
हंसते खिलखिलाते बिताया करते थे
कैसे हो जाती थी सुबह से शाम
भूल जाया करते थे
कभी तुम आते थे मुझको लेने
और कभी मिलने के
खूब बहाने बनाया करते थे
पीछे छूट गए वो बीते लम्हें वो अल्ल्हड़ पन
तुझ संग बीते करते हंसी ठिठोली
आज देखती हूँ पीछे मुड़ तो बस यादें ही बाकी हैं
क्यों कहा था तुमने तब मुझसे
हम जन्मो जन्मो के साथी है
अकेला जीवन कैसे बिताऊं तनहा
यही सोच कर दिल घबराता है
तू न सही पर तेरी यादों संग ही सही
अब मेरा गहरा नाता है

साथ ही तुम मुझको भी ले जाते अपने
ये एकाकी जीवन अब ........और न काटा जाता है
प्रिये अब और न काटा जाता है ....................

Sunday 13 May 2012

कुछ सामाजिक बुराइयाँ जिनसे हम चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं .....
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जिंदगी एक नूर है
किसी के लिए सुरूर है
किसी का गुरूर है
तो किसी के लिए कसूर है
जिंदगी एक नूर है ..............
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माँ की कोख में अजन्मी
गर हो बालिका
इसमें उसका क्या कसूर है ....

माँ इसमें क्या गलती है मेरी
माँ मै भी हूँ अंश ही तेरा
मैं भी गोद में चाहती खेलना तेरी
मैं भी चाहती पिता का हो सर पर हाथ
पर मैंने तो रौशनी की एक किरण न पायी
न मैं तेरी कोख में खुद अपनी मर्जी से आई
क्यों बना मेरा जीवन फिर अभिशाप
मैं एक कन्या हूँ
क्या यही मेरा कसूर है
क्या यही जिंदगी का दस्तूर है .......
जिंदगी एक नूर है
किसी के लिए सुरूर है
किसी का गुरूर है
तो किसी के लिए कसूर है
जिंदगी एक नूर है ..............
*********************************.
कोठे पर बैठी हर कली
किसी के आँगन की हूर है ...

मैं थी इस दुनिया से अनजान
एक अबोध बालिका जो पहुँच गयी
एक ऐसे शमशान
न जाने कितनी ही बार
एक एक रोज में सौ -सौ बार मरा करती हूँ
मैं भी चाहती थी सखियों संग बातें करना
मैं भी चाहती थी घर का प्यारा सा आँगन
फिर क्यों मुझे मिला ये नरक सा जीवन
क्या मैं एक लड़की हूँ
बस यही मेरा कसूर है
क्या मुझ जैसी तमाम लड़कियों पर
पैसे लुटाना यही पैसे वालों का दस्तूर है
जिंदगी एक नूर है
किसी के लिए सुरूर है
किसी का गुरूर है
तो किसी के लिए कसूर है
जिंदगी एक नूर है ............
*******************************

जो जवानी में हुई विधवा
इसमें मेरा क्या कसूर है ...

मैं भी चाहती हूँ
मेरे जीवन में हों सारे रंग
मिलता सिर्फ तानो भरा जीवन
मैं भी चाहती साथ किसी का
अब कैसे कटे पहाड़ सा जीवन
विधाता का विधान ही ऐसा
जो वो साथ छोड़ कर चले गए ..
जब आदमी विवाह कर सकता है फिर से
तो हम स्त्री ही क्यूँ पुनर्विवाह को तरसें
मैं एक स्त्री हूँ
क्या यही मेरा कसूर है

जिंदगी एक नूर है
किसी के लिए सुरूर है
किसी का गुरूर है
तो किसी के लिए कसूर है
जिंदगी एक नूर है ............
आस क्यूँ जगाई मिलन की प्रिय
फिर क्यूँ न आये
अगन तुमने लगे मिलन की प्रिये
फिर क्यूँ रहे बुझाए
इंतज़ार में अब तो बैचैन हुई जाती हूँ
सुध बुध भी खो बैठी हूँ
सुख चैन भी खोये जाती हूँ
आ जाओ प्रियतम मेरे
क्यों इतना तड़पाते हो
दूर दूर रहकर क्यूँ मुझसे
तुम इतना इतराते हो
जो मैं रूठी तुमसे प्रिये
तो फिर मना ना पाओगे
चाहे पुकारो मुझको कितना
पर फिर न वापस पाओगे
जो तुम छोड़ चले हो मुझको
मैं दुनिया को बिसरा दूंगी
सच्चा प्यार किया है तुमसे
मैं ये भी कर दिखला दूंगी
आ जाओ प्रियतम मेरे
क्यों इतना सताते हो ..............
आँखे मूंद बैठ कुर्सी पर
सपने देखे ये निश्छल मन

कितने ही निश्चय अनिश्चय
घुमड़ रहे कितने ख्याल
गाये जा रहे गीत बन्नी के
पड़ रही ढोलक पर थाप
बन्नी सोच रही मन में
कैसे जाऊं मैं ससुराल
क्या सच होंगे सपने मेरे
जो देखे मैंने थे सखियों संग
क्या मिलेगा मुझको
नित नूतन प्यार
नित नूतन आनंद
क्या उठाएंगे वो भी घूँघट मेरा
क्या करेंगे वो भी मेरा आलिंगन
क्या चहक उठेंगे वो भी स्पर्श पा मेरा
क्या देंगे वो फिर मीठा चुम्बन
क्या फिर अपनी बाहों में भर वो मुझको
क्या करेंगे वो मेरा स्पर्श तन
क्या संग मिल कर सपने देखेंगे
क्या पायेंगे अपुल्कित आनंद
आँखे मूंद बैठ कुर्सी पर
सपने देखे ये निश्छल मन -------
आ जाओ कान्हा अंगना में मोरे तुम प्रेम सुधा बरसाने को
रंगूँ प्रीत में मैं भी तुझ संग राधा सी इस जग को लुभाने को
वृन्दावन की गलियों में तेरा भोल बचपन बीता था
गोपियों संग राधा ने यह निश्छल प्रेम तुझसे ही सीखा था
वृन्दावन आकर तेरे चरणों में जो भी शीश नवाते हैं
भूल भाल कर सुध बुध अपनी बस तुझमें ही खो जाते हैं
श्यामल रूप निहार कर तेरा सब मंत्रमुग्ध हो जाते हैं
_________अंजना चौहान ___________

Saturday 12 May 2012

मित्रों आज दिन में खाली थी तो पत्रिका में एक कहानी पढ़ी और उसी के आधार पर ये कविता लिखी ........

आज उसको देख , पुरानी कुछ बीती बातें
चलचित्र सी, मेरी बीती जिंदगी फिर से, सामने आयी
अनायास ही मेरे चेहरे पर एक हलकी सी मुस्कान ,
लेकिन फिर मायूसी सी छायी
याद आ गए, वो बीते लम्हे फिर से
जब वो मुझे छोड़ ,वादों का अम्बार लगा
जल्दी ही वापस आने को बोला था
समझ न पायी थी मैं उस छलिया को
क्योंकि मेरा अंतर्मन भोला था
दिन हफ़्तों महीनो इंतज़ार किया
वो फिर वापस ना आया था
मैंने यह एकाकी जीवन उसके कारण ही पाया था
आज वर्षों बाद देख उसको ,ये सब बीती बातें ताजा हो आयीं
किन्तु देख उसकी नन्हीं सी बिटिया को, मैं थी हलकी सी मुस्काई
पर चोर निगाहों से देख उसने मुझको
अनदेखा किया ऐसे, जैसे कोई पहचान नहीं
पहचान गयी फिर से फितरत को उसकी ,
अब थी उससे अनजान नहीं ,
रोष हुआ खुद पर ही क्यों मैं उससे मिलने आई ??
उलटे पाँव लौटी घर को ,और अपने वर्तमान में आई
घर पहुँच कर मैंने घर की घंटी बजायी
मेरे अन्दर जो द्वन्द था मैं थी उससे बाहर आई
दरवाजा खोल सामने पतिदेव खड़े थे
मैं अपने भावों को न रोक पायी
लिपटी उनसे, जैसे पहला मिलन हो संग अश्रु धरा बह आई
वो कुछ आश्चर्यचकित थे किन्तु खुश थे
आज उन्होंने मुझको पहली बार पाया था
मैंने भी दिल से पतिदेव को आज, पहली बार अपनाया था

______________अंजना चौहान ______________




Thursday 10 May 2012

आ तरुअर की छाँव में दोनों बैठ बतियाएं
कैसे बीता लड़कपन संग में आ बीते पलों को गुन जाएँ
तेरी एक झलक पाने को मैं पहरों इंतज़ार किया करता था
जो तुम न आती थीं मिलने प्रिये तो मैं बैचैन हुआ करता था
तेरी मजबूरी को समझ दिल को अपने समझा लेता था
तेरी एक झलक पाकर ही मैं बस तुझको पूरा पा लेता था
संग बिताये तुझ संग उन पलों की बातें आज भी ,
ऐसी लगतीं मनो कल ही की बात हो
तेरे मेरे प्यार का बंधन ऐसा जैसे जन्मों का साथ हो
**************
हाँ प्रिय मैं भी बमुश्किल ही तन्हाई पाती थी
घर वालों की नज़रों से छुप तुमसे मिलने आती थी
अहसास प्यार का मुझमें भी था पर कहने से शर्माती थी
दुनिया की तीखी नज़रों से मैं थोडा डर जाती थी
किन्तु अब नादाँ नहीं हूँ कह सकती हूँ ,
मैं तुमको ही चाहती हूँ ,
परिवार की परम्पराओं संग चल ,फेरे ले पवित्र अग्नि के
आओ तुम संग विवाह बंधन में बांध जाती हूँ
गर तुमको मंजूर हो प्रस्ताव मेरा तो दर पर मेरे
सहनाई संग बारात लेकर आ जाना
घर वालों से हाथ मांगकर मेरा डोली अपने घर ले जाना
_______________अंजना चौहान __________________


Wednesday 9 May 2012

आओ मिल कर आवाज लगायें
इस प्रचार को व्यापक फैलाएं
गंगा माँ हमारी पवित्र नदिया
इसके अस्तित्व को बचाना है
आओ साथियों मिलजुल कर हमको अब
अपना फ़र्ज़ निभाना है
इस पवन नदिया में लोगों
तुम क्यों प्रदूषण फैलातो हो
सुंदर पवन नदिया को तुम क्यों
मैली करते जाते हो
करनी है जन जन में जाग्रति सब अपना उद्देश्य बनालो
इस पावं नैय्या को सब मिल जुल प्रदूषित होने से बचालो

_______________अंजना चौहान _______________
आज जी भर खेलने को जी चाहता है
आज फिर से बच्चा बनने को जी चाहता है
माँ की गोद में सो जाने को जी चाहता है
माँ के आँचल की छाँव पाने को जी चाहता है
माँ की लोरी सुनने को जी चाहता है
माँ के हाथ से खाने को जी चाहता है
फिर से तुतलाती बोली कहने को जी चाहता है
कुछ हंसी ठिठोली करने को जी चाहता है

____________अंजना चौहान _______
क्या भारत सिर्फ गरीबों का ही देश है ?
नहीं ऐसा नहीं है
कम से कम यहाँ के बड़े बड़े शहरों की
चकाचौंध को देख ऐसा नहीं कहा जा सकता
तो फिर क्यों विदेशियों को
हमारे देश में सिर्फ और सिर्फ
गरीबी और भुखमरी ही दिखाई देती है
ये प्रश्न हमेश कौंधता है मेरे जहन में
फिर क्यों विदेशी चलचित्र बनाने वालों को स्लम एरिया
गरीब , भूखे नंगे लोग , और शहर के किनारे
मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग ही दिखते हैं
ये विदेशी लोग हमारी गरीबी का मजाक उड़ा कर आस्कर तक जीत जाते हैं
और हम बस यूँ ही देखते रह जाते हैं
क्या यही हमारी सभ्यता है ?
क्या समय समय पर यूँ ही हमारा मजाक बनता रहेगा ?
हम यूँ ही चुप बैठे रहेंगे
क्या उन लोगो के खुद के देश में गरीबी नहीं है ?
क्या कभी सरकार कुछ कदम उठाएगी ?
या यूँ ही मूक दर्शक बनी बस देखती रहेगी ....
हाँ शायद देखती रहेगी क्योकि सत्ता के गलियारों तक पहुँचते हुए
न जाने कितनी ही बातों को वादों को सरकार भूल चुकी होती है
फिर इनको गरीबों से क्या लेना देना शायद कुछ नहीं
वोट मिल जाने के बाद
ये तो पांच वर्षों तक भूल चुके होते हैं गरीब वोट बैंक को
यही प्रश्न बस कचोटता रहता है हमेशा
कब तक आखिर कब तक गरीब की गरीबी का मजाक उड़ता रहेगा ??


Sunday 6 May 2012

विषय ...बुजुर्गों की अनदेखी
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मैं आज भी दृढ खड़ा हूँ अशोक स्तम्भ सा
इन हड्डियों में आज भी नौजवानों सी जान बाकी है
जो मुंह फेर कर चल दिए तुम मुझको छोड़
कभी पाला था इन्हीं दो हाथों से तुमको
जीवन कैसे जिया जाता है सिखलाया था अपनी बातों से
शायद मेरी शिक्षा में ही कुछ कमी है
जो संतान को आदर सम्मान न सिखा पाया
जीर्ण शीर्ण निर्बल काया समझ छोड़ गए मुझको क्यूँ
क्यूँ तुमको लाज नहीं आती
कभी तुम्हारा भी ऐसा हश्र हो सकता है
मेरी जीवनी क्या ये नहीं सिखलाती
दम आज भी बाकी है इन बूढी हड्डियों में
सक्षम हैं खुद का निर्वाह करने में
अपना खून जब धिक्कारता है तब चोट गहरे लगती है
वक्त के थपेड़ो की ऐसी भी मार सहनी पड़ती है
कुछ अपने जैसे ही अपनों के मारों संग मिल एक नया नीड़ बसाऊंगा
सबके संग बाटूंगा खुशियाँ उनकी लौटी खुशियाँ वापस लाऊंगा
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क्यों भूल जाते हैं बच्चे
ये भी उसी अवस्था से गुजरेंगे
बीते पल लौट नहीं सकते हैं वापस
जब ये खुद भुगतेंगे तब ही सुधरेंगे 
जीवन ...बस चलता जाता है
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जीवन कभी धूप छाँव तो कभी सवेरा
कभी तरह तरह के सवालों ने जमकर आ घेरा
कभी रेल की पटरी पर
पेसेंजर ट्रेन की तरह रुक रुक कर चलता
तो कभी राजधानी ट्रेन सा सरपट दौड़ता
कितने ही यात्री जैसे चढ़ते और उतरते हैं
वैसे ही कितने इस जीवन में जुड़े मिले और बिछड़े हैं
लेकिन वक्त का पहियाँ ही ऐसा
किसी के लिए नहीं रुकता बस चलता जाता है
रफ़्तार कभी धीमी कभी तेज
क्यों कोई कभी समझ ना पाता है ?
कभी सुगम तो कभी विषम
कभी ख़ुशी तो कभी गम
किन्तु रोके ये न रुक पाता है इसका काम है चलना
तो ये समय के साथ बस यूँ ही चलता जाता है
____________अंजना चौहान ____________१६/०४/२०१२
है थोड़ी बैचैनी पर किसी से कह भी ना पाऊं
अपना दुखड़ा जाकर मैं किसको सुनाऊं
भरी दुनिया में तनहा हूँ ,हर कोई खुद में ही गुम है
उलझाने इस ज़माने में किसी की ना कम हैं
जिसे भी देखो दिल उसका भारी और आँखें नम हैं
सोचती हूँ अपने गम बांटने से अच्छा औरों के ही गम बाँट लूँ
बदले में उनको थोड़ी ही सही पर मुस्कराहट दे दूँ
क्या मुमकिन यूँ ही थोडा थोडा करके सारी ही दुनिया मुस्करा दे
यूँ ही मिलजुलकर सब अपने ग़मों को भुला दें
चरों तरफ बस खुशहाली ही खुशहाली हो
बगिया को यूँ ही खिलाने वाले मेरे संग और कई माली हों
मुस्कराहटें फिर किसी की न कम हों
फिर किसी के हिस्से न कोई गम हो

______________अंजना चौहान ________________५/५/२०१२

आज सुन्दरी कह किसी ने पुकारा हमें
एक साथ कई सवालों ने आ घेरा हमें
आईने के सामने ला कर खड़ा कर दिया
गौर से आईने में खुद को न देखा था सदियों से
उसने ध्यान से देखने पर मजबूर कर दिया
देखा उम्र के निशाँ दिखने लगे हैं अब
कुछ चेहरे पर ,बालों पर भी अब तो होने लगा है असर
क्यूँ सुन्दरी कह उसने पुकारा
दिल सोचने को मजबूर करने लगा
पुछा उसी से ...वो कहने लगा
तन की सुन्दरता देखना ही बस इंसान की फितरत
मन की सुन्दरता न देखे कोए
जब तन की सुन्दरता ओढ़े सुन्दरी कहलाये
तो मन से सुंदर सुन्दरी काहे न कहलाये
यही सोच फिर हटी सामने से आईने के
आई फिर आपने उसी रूप में जो मुझपर फबता है बरसों से
बच्चों संग बच्ची बन जाना ,बड़ों संग बड़ी और हम उमर संग हसीं ठिठोली
सोचती हूँ सच ही कहा उसने ....
मन की सुन्दरता के आगे तन की सुन्दरता के कोई मायने नहीं