Fursat ke pal

Fursat ke pal

Friday 21 December 2012

परेशानियों का सबब यह जिंदगानी है 
ना बिजली है ना पानी है 
रोजमर्रा की वस्तुओं के ऊँचे होते जा रहे दाम 
बढती हुई महंगाई की निशानी हैं 
मिलावट का कारोबार गरम है 
जो खा रहे हैं उसके नकली होने का भरम है 
दूध में घुल रहा जहर तो दूध बंद कर सकते हैं पीना 
लेकिन घुल रहा है जो जहर हवाओं में तो क्या बंद कर दें सांस भी लेना 
दवाएं नकली हो रहीं दुआओं से काम चलाओ 
अपनापन अब रहा नहीं आपसदारी में,तो लाउडस्पीकर बजवाओ
गंगा मैली हो गई यमुना से बची ना कोई आस
मुश्किल हुआ अब सोचना कैसे बुझ पाएगी प्यास
अभावों में जी रहे इंसान के बढ़ रहे अभाव
खून की गर्मी इतनी बढ़ गयी खाता अब वो भी ताव
जवानी मशगूल है प्यार के किस्से दोहराने में
योजनायें बंद तरक्की की पड़ी हैं दफ्तर खाने में
पुरानी समस्याएं खड़ी हैं मुंह बाए नए बिल हो रहे पास
संसद से अब जनता भला कैसे लगाए आस
आन्दोलन के चलने से जनजीवन ठप्प हो जाता है
सैलाब जब उमड़ घुमड़ सड़कों पर उतर आता है
तो भैय्या कोई तो जुगत भिड़ाओ
इन समस्याओं से पार पाने को
सवा सौ करोड़ से ज्यादा की जनता की अगुआई को
कोई तो आगे आओ ........................................अंजना चौहान

Thursday 13 December 2012

ऐसा क्यूँ होता है ....
***************

भीगी पलकें आँखें हैं नम 

दिल में छुपा है कोई गहरा गम 
तेरी मेरी बात के किस्से हैं कम 
दुनिया के फरेब में फंस गए हम
मुस्कान लबों पर ये दिल रोता है
आखिर ऐसा क्यूँ होता है .......

सामने वो जब भी आता है
आबोहवा खिला जाता है
मौन है वो मौन है हम
सिमट ना पाए एक दूजे में है गम
दूर से देख के भी मन खुश होता है
आखिर ऐसा क्यूँ होता है ....

देख उदासी मनमीत की अपने
बैचेनी मेरी बढती ही जाती
उलझन उसकी सुलझाऊं कैसे
सोच सोच मैं समझ ना पाती
दर्द उसे हो ये दिल रोता है
आखिर ऐसा क्यूँ होता है ........

हो साथ तेरा मेरा
ख्वाबों में हो तेरा बसेरा
सोते खोते हुआ सवेरा
नींद खुली जो टूटा सपना
तनहा ये दिल क्यूँ रोता है
आखिर ऐसा क्यूँ होता है .......

चाह हो जिसकी पूरी हो जाए
उम्मीद ना हो जो वो मिल जाए
बंधन प्रीत का जो बंध जाता है
मन चंचल फिर हो जाता है
बावरा मन ये मयूर सा नाचे
मिली ख़ुशी खिल आई बांछे
ये बैरी मनवा सुध बुध खोता है
आखिर ऐसा क्यूँ होता है

Sunday 9 December 2012


तुम एकाकी मैं एकाकी 
क्यों ना बन जाएँ एक दूजे के साथी
कुछ तुम अपने मन की कहना 
कुछ मैं अपने मन की कह जाउंगी
हल्का हो जाएगा भारी मन
फिर तुम अपने घर और मैं अपने घर जाउंगी.....हँसते हँसते
काश मैं भी आरक्षण पा जाती 
ऊँचे पद पर काबिज हो जाती 
जल्दी जल्दी चढ़ जाती पदोन्नति की सीढियां 
साथ वालों को पीछे पछाड़ जाती 
लेकिन मेरा दुःख मुझे सालता है बहुत 
काश मैं भी आरक्षण पा जाती
सोये इंसान का जमीर जगा कर देखो 
पानी में आग लगा कर देखो 
चिंगारी एक ही काफी है लौ जलाने के लिए 
एक दिया जलने की देर है कई दिए जल सकते हैं 
गुजारिश यही है बस एक दिया जला कर देखो ............अंजना
बताओ कैसे झुठला दूँ तुम्हारा वजूद मैं 
चन्दा से बन आते हो तुम चांदनी में नहला जाते हो 
सूरज से बन आते हो तुम किरणों से निखार जाते हो 
सही गलत जब समझाते हो पथ प्रदर्शक बन जाते हो 
दोस्त बन निभाते हो साथ तो मन मीत बन जाते हो 
बताओ कैसे झुठला दूँ तुम्हारा वजूद मैं ..................अंजना

Wednesday 28 November 2012

मैंने जब भी आईने में कभी खुद को गौर से देखा है 
उभर आई मेरे दिल में कुछ स्मृति रेखा है 
कुछ को संजोया मैंने कागज़ पर जो जिया था कभी 
ये चंद लिखे हुए पन्ने मेरे जीवन भर का लेखा हैं 
कमाया कुछ नहीं मैंने सिर्फ अहसास पाले हैं 
कर खुद को कलम क

े हवाले अपने जज़्बात निकाले हैं
जो छुपाया था दिल में गहरे सभी को जाहिर कर डाला
कभी उड़ेल डालीं खुशियाँ कभी गहरा दर्द है निकाला
कभी तन्हाई लिख डाली कभी महफ़िल सजाई है
कलम से दोस्ती मैं अपनी इमानदारी से निभायी है
कभी ममता की मूरत बन माँ का फर्ज़ निभाया है
कभी हंसी ठिठोली कर सखियों का मन बहलाया है
कभी लिखा हैं हंसीं गुलाब तो कभी काँटों को आजमाया है
कलम चलती है मेरी रोज बस अपनी कलम को चलाया है 

Saturday 27 October 2012


रची है मेहँदी हाथों में
सौंधी सौंधी खुशबू आई
धूम हुई है घर में मेरे
मन में सबके हरियाली छाई
पिया मोरे आने को हैं
एक बंधन में बंध जाने को हैं
नया उजियारा होने को है
जीवन में नयी उमंगें छा जाने को हैं
सपने पूरे हो जाने को हैं
नया घरोंदा बस जाने को है ................अंजना चौहान
सुन्दरता की मूरत सी वो दिखती है चाँद से बढ़कर 
बड़ी फुर्सत से तराशा है उसे कोई नहीं मेरे महबूब से बढ़कर
जी चाहे उड़ जाऊं अम्बर में ऊँचे ....
मुमकिन है क्या बिन पंख उड़ पाना ....
भावनाओं की उड़ान है मेरी ,
चाहे जितना भी ऊपर उड़ जाऊं ...
है कठिन सोच को हकीकत बनाना... 
पर सोच है की मानती ही नहीं ,
है मुश्किल इस सोच को रोक पाना ....
ना उम्मीद होकर भी ,
उम्मीदों का दिया जलाया हमने ....
क्या मुमकिन है फिर ...
इस जलती लौ को बुझाना ....
हम रोज ही तेल देते हैं ,
दिए को अपनी उम्मीदों का ...
लौ करती उजियारा आने वाले पलों में
प्रयास हो सार्थक और भरोसा हो खुद पर
तो नामुमकिन नहीं खुद को ऊपर उठाना

छोड़ कर जो चल दिए मुझे यूँ बीच राह में अकेले
क्या बिन मेरे तुम खुद अकेले जी पाओगे ??
बीते हुए कुछ नाजुक से पलों को साथ के अपने
क्या तुम अपनी यादों से भुला भी पाओगे ??
छाप दिया अक्स तुमने अपना मेरे इस जीवन पर
क्या उस अक्स को तुम धुंधला भी कर पाओगे ??
जब अंत यही था अपनी प्रेम कहानी का
तो मेरी जिंदगी में तुम आये ही क्यूँ थे ??
हसीं सपने दिखा मुझको तुम लुभाए ही क्यूँ थे ??
मैंने सुना था प्यार में दिल टूट भी जाया करते हैं
मेरा दिल यूँ टूटेगा सोचा ना था
मेरा सपना ही मुझसे छूटेगा सोचा ना था
सुना था दूरियां भी नजदीकियों का कारण बनती हैं कभी कभी
क्या हमारी ये दूरियां उसे मेरी याद दिलाएंगी ??
बीते पलों की प्यार से सिंचित बहारें क्या फिर से लौट कर आएँगी ??

अपनी इन्ही दूरियों को नजदीकियों में बदलने की चाह में
तुम्हारी पुजारन .........मैं
जन्म लिया और माँ के ममतामयी आँचल में पनपती है जिंदगी 
बचपन में हंसी ठिठोली करते पंख लगा कर उड़ जाती है जिंदगी 

गया बचपन जवानी आई ये बड़ी ही भाई है जिंदगी 

किसी के प्यार में हसीं सपने सजाती है जिंदगी 

कभी है तो हँसाती कभी रुलाती है कभी अपना बनती है ये जिंदगी
कभी खिला के प्यार में धोखा सiरे सपने भी तोड़ जाती है ये जिंदगी

एक प्यारी सी जीवनसंगीनि पायी गृहस्थी जोडती है जिंदगी
जीवन में कुछ उतार और कुछ चढ़ाव बस यूँ ही बीत जाती है जिंदगी

गयी जवानी आया बुढ़ापा किसी की अच्छी पर किसी की ठहरी है ये जिंदगी
अपने कुछ अधूरे सपनो को अपने ही बच्चों में सजाती है जिंदगी
बच्चो संग कभी कभी खुद भी बच्ची बन जाती है जिंदगी
किसी खुशनुमा किसी की लाचार तो किसी की अभीशाप ये है जिंदगी
इस जहां से उस जहां को प्यारी हो जाती है जिंदगी
क्या तुम भी ना ..........
हर वक्त बैठ खिड़की में चाँद को देखा करते हो 
बस सिर्फ मेरा दीदार करो ....मैं तो हर पल तुम्हारे करीब हूँ 
चाँद का क्या ये तो खेल खेलता है आँख मिचोली का
हर सुबह के आते ही ये चला जाता है 
आज वो मेरा ही क़त्ल कर पूछता मुझ ही से है ..कैसी हो ??
अब इल्जाम भी क्या दूँ उसे ...जो मेरी हर बात से अनजान है
शायद मैं ही मजबूर थी अपनी सोच से उबर न सकी 
अपनी सोच की अलग दुनियाँ मैंने खुद ही तो बसाई थी 
मेरी दुनियाँ में चारों तरफ .....बस तुम ही तो थे ...
पर ....तुम्हारा वजूद ...ना था ...
सोचा था कभी तो समझोगे मुहब्बत को मेरी ...तुम ..लेकिन
तुम ...कुछ भी ना समझोगे ...ऐसा सोचा ना था
आज घायल हूँ मैं ....शायद कारण भी खुद ही हूँ अपनी बर्बादी का
अब इल्जाम भी क्या दूँ ...जब तुम मेरी हर बात से अनजान हो
...और ....हर देखा हुआ ख्वाब सच हो जाए ....ये मुमकिन भी नहीं है 
भावनाए क्या होती हैं ??
क्या तुमने ये जाना है ??
मेरी भावनाएं तुम्हारे लिए 
क्या तुमने उन्हें पहचाना है ??
मेरे वो अहसास अपनेपन के 
तुम्हारे लिए ..मेरा लगाव
तुम्हारी एक झलक पाने को
मेरा तड़प उठना ....सब मेरी
भावनाए ही तो उजागर करती है
मैं दिल खोल कर तुमसे बातें करती हूँ
और तुम हमेशा कुछ सिमटे से रहते हो
मैं खिलखिलाकर तुम्हारे साथ हंसती हूँ
और तुम मुस्कराने में भी कंजूसी करते हो
मेरी भावनाओं से तुम अनजान नहीं
मुझे ...यह भी अहसास है ...किन्तु
तुम्हारे अंदर चल रही उथल पुथल से
मैं भी अछूती नहीं हूँ .........फिर.....
तुम कब मुझे दिल से अपना मानोगे ??
बस ...इंतज़ार है ..तो सिर्फ इसी बात का
मैं तुझमें हूँ और तुम मुझमें हो
बस इंतज़ार है..तो सिर्फ इसी अहसास का
है मन चंचल मेरा बड़ा ही नटखट 
ये जब देखो उड़ जाता है 
कभी इधर तो कभी उधर 
ये कहीं ठहर ना पाता है 
दूर कभी आकाश में ऊँचे उड़ 
सूरज को चूम कर आता है
तो कभी गहरे पानी में डूब
ये मछलियों संग तैरता जाता है
अभी यहाँ तो अभी वहाँ
ये सात समुंदर पार कर
पल भर में घूम कर आता है
है मन चंचल मेरा बड़ा ही नटखट
ये जब देखो उड़ जाता है
कभी बन जाता है बच्चा छोटा सा
तो शैतानियाँ करता जाता है
कभी बन जाता है धीर गंभीर
तो समस्याओं को चुटकी में सुलझाता है
है मन चंचल मेरा बड़ा ही नटखट
ये जब देखो उड़ जाता है ....

भारत की सरकार हो चुकी अब जनता की अपराधी
भ्रष्टाचार के रास्ते कर रही जनता के पैसे की बर्बादी

कोमंवेल्थ के घोटाले ने खोल दी इन सबकी पोल
टू जी घोटाले ने कर दी सरकार की गद्दी डांवांडोल

तिस पर से आदर्श घोटाले ने कर दी बची कुची इज्जत मटियामेट
सेनिको की विधवाओं को मिले घर चढ़ गए नेताओं की चाह की भेंट

संसद में जिस सरकार की कभी बोलती थी तूती
अब देखो पब्लिक प्लेसेज में पड़ रही उन्हीं नेताओं को जूती

भ्रष्टाचार का ऐसा रूप पहले ना था कभी देखा
पोथी पोथी जोड़ बढ़ रहा है भ्रष्टाचार का लेखा
आज मैं अपने सपनो को सच बनाने चली 
आज मैं अपने अरमानो की पतंग फिर से उड़ाने चली 
पकड़ लूँ ऊँचे उड़ उन पलों को जो 
कभी चल पड़े थे दूर मुझसे अनदेखी से मेरी 
थाम लूँ या समां लूँ खुद में सपनो को अपने 
या फिर अपनी आशाओं को एक नयी उड़न दे दूँ
आज विचलित है मन कुछ परेशां सा न जाने क्यूँ
कुछ अधूरे सपने आज मेरे पूरे होने को हैं लेकिन
सोचती हूँ कितने स्वार्थी हो जाते हैं हम
सपनो की लम्बी कतार लम्बी ही होती चली जाती है न जाने क्यूँ
वक्त पंख लगा कर उड़ता चला जाता है अपनी ही रफ़्तार से
और मैं अपनी खिड़की में बैठ अपने सपनो का दिया जला
बस उसे ही तेल देने में लगी रहती हूँ
न तो दिया ही बुझने देती हूँ न तेल ही ख़त्म होता है मेरी आशाओं का
और मेरे सपनो की वो लम्बी कतार रूपी मेरी बाती
जो कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती
होगी भी कैसे ...मैं होने दूंगी तब ना !!!!
वो नटखट , वो चंचल चतुर 
वो मन मोहिनी , वो मृग नयनी 
वो कंचन बदन 
वो हंसती तो खिल जाता उपवन 
वो बहाती अश्रु अविरल धारा तो झड़ते मोती 
वो है मेरा एक अद्भुत स्वप्न
वो कस्तूरी मृग
वो खिलाती चितवन
इस मखमली कोमल नाज़ुक तन को फूलों के गहने पहना दो
फूलो की भीनी खुशबू से तुम मेरे तन को महका दो
पक्षियों के कलरव से तुम इस गुलशन को गुंजा दो
तारो की चमकती ओढनी से तुम मेरा आँचल बना दो
तुम हो चंदा मै हूँ चांदनी तुम दोनों का अभिसार करा दो
अपने तन का एक स्पर्श तुम मेरे तन को कर दो
उगते सूरज की इस लाली से तुम मेरी मांग सजा दो
तड़पे है ये मन आ मेरा सजन आ मुझको दुल्हन बना दो
तुम बसते हो मेरे शब्दों में 
इन हवाओं में तुम बसते हो 
तुम बसते हो मेरी साँसों में 
मेरी रूह में तुम बसते हो 
तुम बसते हो मेरे दर्द में

मेरे ग़मों में आकर
तुम हौले से मुस्कुराते हो
तो उस एक क्षण में
मैं कई जन्मों की
ख़ुशी पा जाती हूँ
तुम बसते हो मेरे हर अंग अंग में
मेरी हर फिजा में तुम ही बसते हो

तुम बसते हो मेरी हर सोच में
जिसका आदि भी तुम
और अंत भी तुम
मेरे इस जहां में तुम
मेरे चारों तरफ
बस तुम ही तुम बसते हो
इस जन्म में तुम हर जन्म में तुम
बस तुम ही तुम ||
वो शाम ढले जब तुम मेरी छत पर मिलने आते थे 
अपनी उँगलियों से हौले हौले जब तुम मेरे बालों को सहलाते थे 
कैसे हँसते हँसते यूँ ही हम हर शाम बिताया करते थे 
आने वाली हर शाम को हम अपने हसीं सपनो से सजाया करते थे 
तारीफें तुम्हारे करने से मैं हल्का सा शर्माती थी 
तुम्हारे मीठे बोलों को मैं बस सुनती ही जाती थी
उड़न छू हो जाते हैं सुहाने पल , तो याद उन्हीं की सताती है
जल्दी से आ जाओ प्रियतम मेरे , मेरी धड़कन तुझे बुलाती है
कौन करेगा अब इस घर को पावन 
कौन झूलेगा बगिया में जब आये सावन 
कौन खायेगा माँ के हाथ का पहला टुकड़ा 
भोर होने पर पिता देखेंगे किसका प्यारा मुखड़ा 

लगा माथे पर उसके नन्हीं बिंदिया
थाप देतीं माँ उसको जब आती निंदिया
ठुमक ठुमक चलती तो पिता बजाते ताली
लगता कुछ ऐसा जैसे हो कोई बगिया का माली
फूल खिले और माली उसको लगे निहारने
मेहनत कर लगे माता पिता बिटिया का बचपन संवारने


कैसे बिटिया बड़ी हुई हो आई सायानी
लगा बीतने बचपन तो विवाह की ठानी
सोचा मिले उसे इक घर अपना सा प्यारा
मिले अपनों का प्यार उसे और
करे वो उस घर को भी उजियारा


कौन कहेगा जब पिता जायेंगे ऑफिस -टाटा
कौन करेगा शिकायत आने पर माँ की ,
पापा माँ ने आज बहुत डांटा
किसके गiलों पर करेगी माँ प्यार, से चुम्बन प्यारा
जब भी होगी विदा लाडली घर, से बहेगी अश्रु धiरा


माथे पर बिंदिया ,मांग में सुहाग की लाली
दमक रही है उसके कानों में बाली
हाथों में हैं खनक रहीं चूडियाँ प्यारी
और पैरों में हैं बज रही पायल भारी

शादी के जोड़े में सज वह ससुराल चली
पीछे अपने बचपन की यादें छोड़ चली
फिर आ रही याद उसकी तुतलाती बोली
वो देखो सज रही आज उसकी डोली

सदा रहे सर पर हाथ माता पिता का
तू सदा ऐसे ही काम करना
जैसे रहा तुझसे ये घर उजियारा
उस घर को भी उजियारा रखना

और अंत में है बस मेरा इतना कहना

बेटे से बढ़ कर है नहीं कोई अनमोल रत्न
और नहीं बेटी से बढ़ कर कोई प्यारा गहना

यह है हमारा किसान
न होगा कोई इससा महान
अन्नदाता है यह हम सबका
फिर भीनहीं मिलता इसको सम्मान
यह है हमारा किसान

दिन और रात मेहनत यह करता
माटी संग इसका गहरा नाता है
खून पसीना अपना बहा कर यह
हम लोगों के लिए अन्न जुटाता है
यह है हमारा किसान

क्यों हो जाता मजबूर फिर
दयनीय दशा में रहने को
क्यों कर्ज के बोझ तले दब
आत्महत्या का कदम उठाने को
हमारा अन्नदाता हमारा किसान
खुद भूखे पेट सो जाने को

ऐसा नहीं की नीतियाँ नहीं है
कुछ ठन्डे बस्ते में बंद हो जाती हैं
जो होती कुछ कारगर वो
भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं
ये भोला भला सीधा साधा
सरकारी नीतियों से अन्जान
यह है हमारा अन्नदाता
यह है हमारा किसान

कभी झेलता सूखे की मार यह
कभी बारिश कहर ढा जाती है
बची कुची रह जाए कसार तो
सर्दी में पाले की मार पड़ जाती है
कुदरत की मार भी देखो कैसे
गरीब पर ही जुल्म ढाती है
जो फसल तैयार करता हमारे लिए
उसकी खुद की रोटी छिन जाती है
खुद रह कर फटेहाल यह
फसलों को मेहनत से सींचता है
यह है हमारा किसान
ना होगा कोई इससा महान
एक बेहतर कल की चाह है 
तो क्यूँ नहीं अपना आज सजाते हम 
जो भटक रहें हैं राह से अपनी 
तो क्यूँ नहीं उन्हें सीधी राह दिखाते हम 
कोई भूखा न सोये देश में कभी 
तो क्यूँ नहीं गरीबी को जड़ से मिटाते हम
नाम ऊँचा हो देश का अपने जग में
तो क्यूँ नहीं आगे कदम बढ़ाते हम
बेटियों की संख्या कम हो रही है देश में
तो क्यूँ नहीं बेटियों को बचाते हम
जब फैला हो अन्धकार धरा पर
तो क्यूँ नहीं उजियारा फैलाते हम
बरसात की बूंदों संग
वो ओस की बूंदों सी
है नादान ये मतवाली है
मनभावन सी इसकी
हर अदा ही निराली है
ये मासूम ये अल्ल्हड़
ये कली बड़ी मतवाली है


लड़की की भ्रूण हत्या के पक्ष में कुछ तर्क देती एक लाचार माँ और उसके साथ जिरह करती एक अजन्मीं बेटी का संघर्ष .......
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माँ मैं हूँ अंश तेरा ही इस दुनिया में आना चाहूँ
एक कली हूँ फूल बनने से पहले मैं नहीं मुरझाना चाहूँ
मैं ना बनूँगी तेरे कंधे पर जिम्मेदारी ना करुँगी भूल कोई भारी
चाहूँ झूलूं पलने में भी हंस हंस कर तो माँ आने दे ना मेरी भी बारी
घर की लक्ष्मी बन कर मैं आऊंगी तेरे आँगन को महकाउंगी
कर अपने परिवार के नाम को रौशन मैं अपना फ़र्ज़ निभाउंगी

तू मेरे आने पर रोक लगाएगी तो
समाज में गुनाहगार कहलाएगी

बिटिया ना दे मुझे समाज की दुहाई
इस समाज ने ही तो है सारी आग लगाई
बिटिया मैं तुझे अपनी गोद बिठाना चाहूँ
बिटिया मैं तुझे अपने गले लगाना चाहूँ
पर ये दुनिया नहीं तेरे लिए महफूज
बस यही एक उपाय रहा मुझे सूझ
समाज में ठेकेदार बड़े हैं दहेज़ के लोभी सर पर खड़े हैं
यहाँ कदम कदम पर हार है
देह के ठेकेदरो के लिए लड़की एक व्यापर है
इज्जत का अब कोई रहा ना मोल पैसे से रहे अब सब कुछ तौल
यहाँ दहेज़ के लालच में बेटियाँ जलाई जाती हैं
ऊपर से हो गरीबी की मार तो बिन ब्याही ही रह जाती हैं
लोलुप पुरुष बस गिद्ध की सी द्रष्टि रखता है
चाहे हो बेटी की उम्र की बस मौका मिलते ही झपटता है

तो बता क्यों ना मैं अपनी नन्ही को भुला दूँ
तो क्यों ना कोख में ही तुझे निंद्रा में सुला दूँ

हे मानुष !
न हो विस्मित व्याकुल
ना भाग विकट परिस्थितियों से डरकर
ये दिनकर आँख मिचोली खेले
रख धैर्य कर इन्तजार
इस रजनी के गुज़र जाने का
चल सही डगर पर मत बिचल
बस ठहर ठहर कुछ देर ठहर
सवेरा होगा

इस अरुणोदय के आने से दूर अन्धकार होगा
ना हो निराश ना ही उदास
ना कर विलाप ना ही संताप
ना धीर अधीर ना व्याकुल हो
इस दिनकर को कोई मेघ ना कभी ढक पाया है
रख धेर्य पौ फटने का
बस ठहर ठहर कुछ देर ठहर
सवेरा होगा

तू बन कर्मठ दूरदर्शी बन
अथक परिश्रम ही सफलता की कुंजी
श्रम साध्य ही शिरोधार्य है
आलसी कब सफल हो पाया है
पहचान उसे जो अन्तार्निहित तुझमें
नहीं सुलभ है मार्ग सफलता का
न डिगा विश्वास प्रभु पर से तू
बस ठहर ठहर कुछ देर ठहर
सवेरा होगा

तू हो कृतज्ञ इश्वर का
जो दिया जन्म मनुष्य का
इस जन्म को तू यूँ ही व्यर्थ न कर
नहीं असाध्य कोई कार्य है
तू पहचान उसे जो तेरा अंतर्ज्ञान
नित अनुयायी अनुचर अनुगामी बना
नहीं सुगम है डगर सफलता की
बस ठहर ठहर कुछ देर ठहर
सवेरा होगा
 —

हूँ कवि तो करूँ कल्पना साकार
अपने भावों को दूँ आकर
मैं बन पखेरुं उड़ू नील गगन में
निहारूं अद्वितीय वसुंधरा का संसार
करूँ आभार त्रिलोचन का
जिसने दिया प्रकृति को सौंदर्य अपार
बस यही है मेरी अभिलाषा
अपनी कल्पना को करूँ साकार

बन चकोर करूँ चितवन चंचल मयंक का
दूँ घन के उपर डेरा डाल
कैसे रोज घटे बढे है ये
मै भी देखू इसका कमाल
बस यही है मेरी अभिलाषा
अपनी कल्पना को करूँ साकार .............

इस जग को उजियारा कर दूँ
न हो किसी की दुनियां में अन्धकार
रति भर जोती जलूं बन बाति
बस यही है मेरी अभिलाषा
अपनी कल्पना को करूँ साकार ............

हे प्रभु दे इतना अपार
बनू धनवान तो गरीब निकाजुं
निराक्षर को करूँ साक्षर
न करे कोई किसी का तिरस्कार
बस यही है मेरी अभिलाषा
अपनी कल्पना को करूँ साकार ...............

बन कुसुम महकाऊ उपवन
बिखेरूं खुशबू इस जग में केवड़ा बन
न हो कोई उदास न हो निराश
बस यही है मेरी अभिलाषा
अपनी कल्पना को करूँ साकार ........

न हो वैमनस्य न हो द्वेष
दूर हो ये ऊँच नीच
माँगू हरी से सब करे संभव
बस यही है मेरी अभिलाषा
अपनी कल्पना को करूँ साकार ................

बस यूँ ही मद मस्त रहूँ मैं
करूँ कारवां अपने साथ
साथ करूँ नित्य प्रति उपासना प्रभु की
न दे स्वार्थ ,अहं,छल मुझे कभी
बनू निर्विकार, सद्चरित्र ,सत्यवादी
बस इतनी सी मेरी अभिलाषा
वो अल्लहड़ बचपन की नादानी 
वो थोड़ी मस्ती वो थोड़ी शैतानी 
क्या वो पल फिर लौट नहीं सकते 
क्या फिर से हम बच्चे नहीं बन सकते 
मुझमें छिपी बच्ची कभी कभी बहार आ जाती है 
उचल कूद करती है जम कर
अपनों संग धमाल मचाती है
पल में बीत जाते हैं वो पल
जैसे बस पलक झपकाई हो
लगता है मिल सबको ऐसा जैसे
रुत बचपन की लौट कर आई हो
बच्चों सी ही खेल मैं रोज बच्ची बन जाती हूँ
दुनिया की इस भीड़ में मैं कुछ अपनों को पा जाती हूँ
आप बीती 
********
इस फेस बुक का मुझको भी चढ़ गया बुखार 
इसके चक्कर में पड़ सब घूमना फिरना हो गया बेकार 
पतिदेव कहते हैं बीवी इन फेस्बुकी चेहरों से बाज आ जाओ 
जीता जगता चेहरा जब सामने है तो थोडा इसमें भी मन रमाओ
कोई ना आएगा काम तुम्हारे देखना एक दिन मुंह की खाओगी
जब कोई करेगा बातें उलटी सीधी तब तुम बड़ा पछताओगी
हम भी कहाँ मानने वाले थे अपनी आदत से बाज ना आये
जैसे ही जाते पतिदेव दफ्तर हम भी झट से फेस बुक देते लगाये
पूरे दिन इस पर अपना मजमा जम जाता है
कभी होती है पोस्ट कविता तो कभी कमेन्ट पर ध्यान आ जाता है
जब से इसके सामने बैठना ज्यादा हुआ कई किलो वजन बढाया है
एक बार गुस्सा कर पतिदेव को, अपना फोन और लैपटॉप भी तुड़वाया है
सारे नंबर उड़नछू हो गए बड़ी हुई परेशानी
यही सोच हमने भी इस बार ब्लेक बेरी छोड़
कोई सस्ता सेट लेने की ठानी
हम ले आये हैं अब एक सस्ता और टिकाऊ सेट
क्योंकि अब फेक बुक हमसे न छूटेगा
चाहे मारें गुस्से में पटक कितनी ही बार
पर सेट सस्ता ही टूटेगा

कवि भावनाओं की उडान है
कभी आकाश में ऊँचे उडाता है तो
कभी गहरे समन्दर में गोते लगाता है
कवि क्रांति का आगाज है
कभी जोश भर देता है वीरता का तो
कभी पल में मायूस भी कर देता है
कवि एक साज है कवि तरन्नुम है कवि तराना है
कभी मीठा तराना छेड़ जाता है तो
कभी दर्द भरा नगमा सुनाता है
कवि हँसाने का एक बुलबुला है
कभी हँसता है तो
कभी हंसाते हंसाते रुलाता है
कवि कल्पना है कवि अहसास है कवि आस है
कभी सत्य है तो
कभी छलावा है
कवि अजर अमर है क्योंकि
कवि भावना है...और भावनाएं कभी नहीं मरती हैं

मैं परिंदा हूँ
वो जो सुबह सूरज की किरणे फूटते ही
चहचहाने लगता है
जो आकाश में ऊँचे , बहुत ऊँचे उड़ता जाता है
मैं एक परिंदा हूँ
एक चंचल मन सा जो कभी कहीं नहीं टिकता
हाँ लेकिन साँझ ढले अपने घर को जरूर लौटता है
मैं परिंदा हूँ
जो दूर देश से मीलों का सफ़र तय कर आता है
अपनी मनपसंद जगह चुन वहां कुछ समय के लिए
मैं एक परिंदा हूँ
जो अपनी सुन्दरता से सबको मोह लेता है
निश्छल सा जो अपने में ही मग्न रहता है
आकाश में ऊँचे उड़ना जिसका काम है और
वो बस अपनी धुन में मग्न अपना काम बखूबी करता है
उसका काम है उड़ना तो वो आकाश में स्वछंद उड़ता है
बिना किसी रोक टोक उसे उड़ना पसंद है
वैसे ही मुझे भी एक पंछी सी ही जिंदगी भाती है
स्वछंद और बहती बयार सी बिन रोक टोक की
हाँ मैं कह सकती हूँ की मैं नील गगन में उड़ने वाला पक्षी हूँ
भावनाएं मुझे अभी यहाँ तो अभी वहां दूर तक पल में उड़ा ले जाती हैं


प्रकृति का सौन्दर्य अनूठा
प्रकृति की छठा निराली है
पहाड़ों की इन वादियों की कथा सुनाने वाली है
पानी के सोतों की निर्मल धारा
यूँ ही चलते फिरते मिल जाती है
पर्वतों की गोद से निकलती निर्मल धारा
स्वछंद निर्झर बहती जाती हैं
भव्य श्री बद्री श्री केदार यहाँ के
देश के तीर्थ स्थल कहलाते हैं
गंगोत्री यमनोत्री इन्ही के संग
चार धामों में गिने जाते हैं
यही से बहती माँ गंगे
उत्तरांचल को पूरे
जगत में पहचान दिलाती है
हरिद्वार ऋषिकेश पवित्र नगरी के
नाम से पहचान पाती हैं
इन्हीं वादियों में बीता था बचपन
यहीं हंसी ठिठोली करते थे
यहीं पर हम खेला कूदा करते थे
और इन्ही खेतों में चढ़ते और उतरते थे
कठिन था जीवन किन्तु सरस था
माँ की वो ममतामय छाव श्रद्रस था
अब भी जब याद आता है
मेरा गाव.........
मुझे बुलाता है __
मिली है मुझको एक प्यारी सहेली 

सखी संग मिल मैं लौट चली बीते दिनों में 
वो कालेज की मस्ती फिर से याद आने लगी 
वो बातें कुछ बीती लुभाने लगीं 
करती हैं गुप चुप कुछ बातें साथ घंटों बिताना
मिजाज है कुछ कुछ एक जैसा तो
खेल खेल में दिल की बातें कह जाना
मैं अल्लहड़ नादान वो अलमस्त अलबेली
मेरी प्यारी सखी वो मेरी प्यारी सहेली

मैंने किया तुमको बहुत ही मिस
एक लगती है काजू तो दूजी किसमिस
एक के साथ मिस किया पिक्चर जाना
तो एक के साथ मिस किया उन्धिया खाना
एक के तो शोक ही निराले है
हर तरह के किरदार हमने अपनी दोस्ती में पाले है
एक के साथ खूब कहकहे लगाये हैं
तो दूजी के साथ शायरी के मज़े उड़ाए हैं
सबको अपने साथ खूब ही घुमाया है
किट्टी में जा कर चाट पकोड़ी भी खूब जम कर खाया है
आज हम सबसे दूर है तो क्या फेस बुक पर तो रोज मिल जाते हैं
अपने सब दोस्त हमने याद बहुत आते हैं
कभी अकेले में भी जम कर हसाते हैं तो
कभी तन्हाई में बहुत रुलाते हैं
हमने अपने दोस्त बहुत किस्मित से पाए हैं
और जम कर दोस्तों संग मजे उडाए हैं
हम चाहते हैं सबको प्यारे प्यारे दोस्त मिल जाएँ
और सब दोस्ती के जम कर मज़े उड़ायें

काश !! समय पर गणित पढ़ा होता


काश हमने भी समय पर गणित पढ़ा होता तो इंजीनियर बन जाते
करते बड़े बड़े काम और खूब ही नोट कमाते
पर क्या करे इस बुद्धि का समय पर ना चल पायी
न सीखा अंक गणित इसने और ना ही बीज गणित सीखने की जुगत भिडाई
जोड़ घटा और गुणा भाग इनमें तो दिमाग रम जाता
पर बीज गणित की इकवेजन में तो सारा दिमाग ही गुल हो जाता
रेखाएं खींच बड़े आराम से त्रिभुज तो बना लेते
पर जब बारी आती कोण का मान बताने की तो हम दायें बाएँ हो लेते
फार्मूलो का खेल हमें कभी समझ ना आया
एक को किया याद अभी तो दूजे को उसमें मिलाया
पहाड़े रटते रटते हमारा दम ही निकल जाता
जब आती सुनाने की बारी हमारी तो चेहरा लाल हो आता
लघुत्तम और महत्तम का हिसाब समझ न आया
पाई का मान कैसे निकले इसने बड़ा भरमाया
त्रिज्या ,परिधि ,छेत्रफल ,घनत्व, आयत ये तो नाम ही कठिन से लगते
तो सोचो कैसे हम इनके फार्मूले भी रटते
प्रमेय और निर्मय का तो खेल कभी ना भाया
काम और घंटों के सवालों ने हमें बड़ा रुलाया
भिन्न और अनुपात के सवालों ने हमें बड़ा छकाया
वर्गमूल के कठिन सवालों ने जम कर पसीना छुडवाया
गिर पड़ कर किसी तरह पास होकर हम दसवीं तक आये
चुनने को मिला हमें विषय तो हम लिए गणित से पीछा छुडाये
तो भैय्या हमारी यही कमजोरी के चक्कर में हम इंजीनियर ना बन पाए
कैसे कमायें नोट अब हम कैसे जुगत भिड़ाये
मुझे मुर्दों से डर नहीं लगता मैं शमशान का रखवाला हूँ 
मुझे आग से डर नहीं लगता मैं रोज मुर्दों को आग के हवाले करने वाला हूँ 
हड्डियों के बुतों को देख मैं कैसे डर सकता हूँ जब ,
मैं रोज हड्डिया चुनवाने वाला हूँ
इंसान इस संसार में रोते हुए जन्म लेता है ,
लेकिन जब जाता है सबको रुला जाता है
ये दुनियाँ कभी जज्बाती तो कभी मतलबी होती है बहुत
जज़्बात क्या होते हैं यह मैं जान कर भी जानना नहीं चाहता
क्योंकि कितने ही लोगों को मैंने यहाँ जलते देखा
जलते वक़्त उनके रिश्तेदारों को बिलखते देखा, किन्तु
शरीर जलकर राख भी न हो पाए, मैंने उनको आपस में झगड़ते भी यहीं देखा है
अगर जज्बात ऐसे होते हैं..........तो नहीं चाहिए
अगर रिश्तेदार ऐसे होते हैं .......तो नहीं चाहिए
मैं खुश हूँ अपनी जगह अपने काम से
कम से कम कुछ तो अच्छा काम करता हूँ
शरीर की इस मोह माया को ख़त्म करवाता हूँ

मैं शमशान का पहरेदार हूँ ......... मैं मुर्दों को जलवाता हूँ

बिखरना मैंने सीखा नहीं
पिघलना मैंने सीखा नहीं

टकरा जाऊँगी किसी से भी अपने अधिकार कि खातिर
डरना मैंने सीखा नहीं
हाँ मैं एक स्त्री हूँ
अकारण किसी से झगड़ना मैंने सीखा नहीं
संस्कारों और मर्यादाओं का बंधन मुझे प्यारा है
पराये को पाने कि चाह में गिरना मैंने सीखा नहीं
हाँ मैं एक स्त्री हूँ
संभल कर चलना मैं जानती हूँ
आत्मविश्वास से भरी आत्मनिर्भर हूँ मैं
डरना मैंने सीखा नहीं
डोर हूँ रिश्तों की
रिश्तों को डोर में पिरो कर रखना जानती हूँ
परिवार का महत्त्व क्या होता है मैं बखूबी पहचानती हूँ
हाँ मैं एक स्त्री हूँ
सशक्त ,समस्याओं से जूझती और उबरती हुई
परिवार के लिए मर मिटना मैं जानती हूँ
हौसले से भरी
नाकामियों को शिकस्त देना मेरा काम है
पस्त होना मैंने सिखा नहीं
चोट खाने कि आदत है सिहरना मैंने सीखा नहीं
हाँ मैं एक स्त्री हूँ
अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना मैं जानती हूँ
वक़्त के थपेड़ों को सहने कि अब आदत हुई
भीड़ से अलग
खुद में सिमटना मैंने सीखा नहीं
हाँ मैं एक स्त्री हूँ
हाँ मैं एक स्त्री हूँ
स्त्री को समाज में पहचान दिलाना जानती हूँ
आज सुन्दरी कह किसी ने पुकारा हमें 
एक साथ कई सवालों ने आ घेरा हमें 

आईने के सामने ला कर खड़ा कर दिया 
हमें आज उसने खुद ही से रूबरू कर दिया 
गौर से आईने में खुद को न देखा था सदियों से
उसने ध्यान से देखने पर मजबूर कर दिया
देखा उम्र के निशाँ दिखने लगे हैं अब
कुछ चेहरे पर ,बालों पर भी असर होने लगा है अब
क्यूँ सुन्दरी कह उसने पुकारा
क्या वो देता है कोई गुप चुप इशारा
दिल सोचने को मजबूर करने लगा
पुछा उसी से ...वो कहने लगा
तन की सुन्दरता देखना ही बस इंसान की फितरत
मन की सुन्दरता न देखे कोए
जब तन की सुन्दरता ओढ़े सुन्दरी कहलाये
तो मन से सुंदर सुन्दरी काहे न होए
यही सोच फिर हटी सामने से आईने के
छलिया है ये , इस आईने का काम ही है छलना
आई फिर आपने उसी रूप में जो मुझपर फबता है बरसों से
बच्चों संग बच्ची बन जाना ,बड़ों संग बड़ी और हम उमर संग हसीं ठिठोली

सोचती हूँ सच ही कहा उसने ....
मन की सुन्दरता के आगे तन की सुन्दरता के कोई मायने नहीं 
मेरी बर्तन वाली मेरे बर्तन बहुत चमकाती है 
उलट पलट कर थाली को वह उसमें मुंह देख इठलाती है 
मेरी बर्तन वाली मेरे बर्तन बहुत चमकाती है 

धो धो कर बर्तनों को वह टोकरे में रखती जाती है 
थाली को कर किनारे पर खड़ा कटोरी पर कटोरी चढ़ाती है
गिलास में रखती है धो धो कर चम्मच
कुकर पर कढ़ाही पलट कर रख जाती है
मेरी बर्तन वाली मेरे बर्तन बहुत चमकाती है

खटर पटर के बीच बर्तनों की वह सुरीला राग सुनाती है
बर्तनों के बेसुरे तराने को उसकी मधुर आवाज दबाती है
जो भरा हो सिंक बर्तनों से तो वह गुस्से में चिल्लाती है
चाय पीती है गिलास में वह और नाश्ता करके जाती है
मेरी बर्तन वाली मेरे बर्तन बहुत चमकाती है

आपकी हंसी
.....
कभी गुदगुदाती है
कभी दिल बहलाती है
कभी हंसाती है मुझे तो
कभी जोर से हँसाते हँसाते रुला जाती है ......आपकी खिलखिलाती हँसी

जब तुम हंसती हो ...
...
जब तुम हंसती हो तो मैं भी हंस देता हूँ
जब तुम हंसती हो तो मेरा रोम रोम खिल उठता है
जब तुम हंसती हो तो मेरी फिजा महकने लगती हैं
हंसती रहा करो तुम्हारा खिलखिलाकर हँसना अच्छा लगता है
पिया की बाट जोहती प्रियतमा ....
......
आस क्यूँ जगाई मिलन की प्रिय 
फिर क्यूँ न आये 
अगन तुमने लगे मिलन की प्रिये 
फिर क्यूँ रहे बुझाए
इंतज़ार में अब तो बैचैन हुई जाती हूँ
सुध बुध भी खो बैठी हूँ
सुख चैन भी खोये जाती हूँ
आ जाओ प्रियतम मेरे
क्यों इतना तड़पाते हो
दूर दूर रहकर क्यूँ मुझसे
तुम इतना इतराते हो
जो मैं रूठी तुमसे प्रिये
तो फिर मना ना पाओगे
चाहे पुकारो मुझको कितना
पर फिर न वापस पाओगे
जो तुम छोड़ चले हो मुझको
मैं दुनिया को बिसरा दूंगी
सच्चा प्यार किया है तुमसे
मैं ये भी कर दिखला दूंगी
आ जाओ प्रियतम मेरे
क्यों इतना सताते हो
इस धरा का श्रृंगार कर 
इसे सहेज संवार कर 
सहेज इस प्रकृति को 
तू इसे ही प्यार कर 

निज स्वार्थ की खातिर
जब यह सौन्दर्य ख़त्म किया
क्यों तूने जरा भी सोचा नहीं
हाय ये तूने क्या किया

कितने पंछियों का घर उजड़ा तूने
कितने वृक्षों को काट कर
कितने ही घर बना डाले
नदियों को भी पाट कर

याद रख प्रकृति जब
विनाश लीला खेलती है
नष्ट हो जाता है सब
पल भर के ही खेल में

कितने ही घर बह जाते हैं पल में
जब नदी आती है उफान पर
कितने ही घर ढह जाते हैं
हिलती है जब धरती जलजले के रूप में

तो याद रख बस याद रख
प्रकृति के साथ खेलना नहीं
सहेज इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए
अब इसे और छेड़ना नहीं
दहेज़ ही कुरीति फैलाती है अत्याचार 
प्रथा यह कर रही आज भी समाज को बीमार 
जिसे ब्याह कर लाये हो उससे बोल तो मीठे बोलो 
उसे हर रोज तुम दहेज़ के तराजू में ना तोलो 
जिसके साथ तुम जीवन भर करते हो साथ निभाने का वादा 
उसी को दहेज़ के लोलुप व्यवसायी कर देते हैं कूट कूट कर आधा
क्या तुमको उस अबला अबोध नारी पर जरा भी दया नहीं आती
जो अपने माता पिता, भाई बहन को छोड़ तुम्हारे घर आकर है बस जाती
इतना भी नहीं सोचते कि क़ानून के हत्थे चढ़ गए तो कहीं के नहीं रह जाओगे
प्रभु के बानाए बन्दों प्रभु से तो डरो उसकी लाठी में बहुत आवाज होती है उसे क्या मुंह दिखाओगे
एक पतली सी पगडण्डी 
ऊँचे नीचे रास्तों पर 
कहीं सीधी तो कहीं बलखाती
कहीं आड़ी तिरछी रेखाओं सी खिची 
जहां सड़क नहीं वहां आज भी 
यही पहुंचाती गंतव्य तक
एक पतली सी पगडण्डी
पहाड़ी स्थान और जगह सुनसान
कठिन जीवन जंगल बियावान
कहीं नहीं विकास का नाम
भागती दौड़ती जिंदगी से यहाँ आज भी अनजान
आज भी दूर से पानी भर कर लाना
पैदल ही मीलों रास्ता तय कर जाना
इसी पगडण्डी से अपनों से जुड़ जाना
ये पगडण्डी आड़ी तिरछी रेखाओं सी खिंची
रास्ते के नाम पर एक मात्र पहचान
यहाँ न गाड़ियों का शोर ना ही प्रदूषण
ना ही यहाँ किसी को होती टेंशन
लोग सोते आराम से लम्बी चादर तान
बस यही एक पगडण्डी अपनों से जोड़ने का
एक मात्र साधन ...जिस पर लोग ढोते साजो सामान

Sunday 5 August 2012

आज मेरे अरमान भी उड़ रहे हैं उडती हुई पतंग की तरह लेकिन 
जानती हूँ तुम मेरे अहसासों की डोर थामें खड़े हो मुंडेर पर छत की
डर जाती हूँ कहीं कोई आकर काट ना जाए मेरे अरमानो की पतंग 
आ गिरें मेरे अरमान भी कटी पतंग की तरह ही जमीं पर 
चरखी पकड़ाकर मुझे अपने संग ही खड़ा कर लेते हो तुम 
मेरे चेहरे पर उतरते चढ़ते भावों को अच्छी तरह पढ़ लेते हो तुम  
तुम हो की मेरे डर को बखूबी भांप लेते हो 
जानती हूँ तुम खिलाडी हो मंझे हुए पतंगबाज बड़े हो 
पतंग को ऊँचे उड़ाना अच्छी तरह जानते हो तुम 
मेरे अरमानो की डोर तुम कटने नहीं दोगे यह जानती हूँ 
बसे हुए मेरे इस चमन को तुम उजड़ने नहीं दोगे मैं मानती हूँ 

Saturday 4 August 2012

अजनबी कौन हो तुम मेरी रूह को छू लेते हो 
बिखर जाती हूँ मैं ख्यालों में भी तेरा अहसास पाकर 

मेरे अहसासों की डोर थामें खड़े हो तुम उजाले के इंतज़ार में 
सिमट जाती हूँ मैं ख्वाबों में भी तेरे नज़दीक आकर 

सहर का सूरज आज एक नया सन्देश गुनगुनाता है 
फ़ना हो जाती हूँ मैं आज तेरी बाहों में समाकर 

Wednesday 4 July 2012


छोड़ कर जो चल दिए मुझे यूँ बीच राह में अकेले
क्या बिन मेरे तुम खुद अकेले जी पाओगे ??
बीते हुए कुछ नाजुक से पलों को साथ के अपने
क्या तुम अपनी यादों से भुला भी पाओगे ??
छाप दिया अक्स तुमने अपना मेरे इस जीवन पर
क्या उस अक्स को तुम धुंधला भी कर पाओगे ??
जब अंत यही था अपनी प्रेम कहानी का
तो मेरी जिंदगी में तुम आये ही क्यूँ थे ??
हसीं सपने दिखा मुझको तुम लुभाए ही क्यूँ थे ??
मैंने सुना था प्यार में दिल टूट भी जाया करते हैं
मेरा दिल यूँ टूटेगा सोचा ना था
मेरा सपना ही मुझसे छूटेगा सोचा ना था
सुना था दूरियां भी नजदीकियों का कारण बनती हैं कभी कभी
क्या हमारी ये दूरियां उसे मेरी याद दिलाएंगी ??
बीते पलों की प्यार से सिंचित बहारें क्या फिर से लौट कर आएँगी ??

अपनी इन्ही दूरियों को नजदीकियों में बदलने की चाह में
तुम्हारी पुजारन .........मैं
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