जब भी कलम उठाती हूँ
कुछ भी लिख न पाती हूँ
कुछ बिखरा हुए शब्दों को
अपने ही इर्द गिर्द पाती हूँ
समेटना चाहती हूँ खयालो को
फैले हैं ये चारों तरफ
कुछ समेटती हूँ तो कुछ में
गहरे उलझ जाती हूँ
जब भी कलम उठती हूँ
खुद को लिखने में
असमर्थ ही पाती हूँ
सोचती हूँ लिखूं
सखियों के बारे में तो
लड़कपन में पहुँच
जाती हूँ
वो हंसी ठिठोली
वो अल्लाहडपन पेड़
कक्षा से बंक मार
केन्टीन से समोसे खाना
यही सब बातें याद करते हुए
बस विचारों में खो जाती हूँ
क्या लिखूं क्या छोड़ू
कुछ समझ न पाती हूँ
बस लिखने में फिर से
खुद को असमर्थ ही पाती हूँ
जब भी लिखने बैठूं
विचारों में गहरे
उलझ जाती हूँ
लिखने बैठती हूँ कुछ
और लिख कुछ जाती हूँ
sunder likha hai di_
ReplyDeletethanx bhaai
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