Fursat ke pal

Fursat ke pal

Saturday 27 October 2012


लड़की की भ्रूण हत्या के पक्ष में कुछ तर्क देती एक लाचार माँ और उसके साथ जिरह करती एक अजन्मीं बेटी का संघर्ष .......
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माँ मैं हूँ अंश तेरा ही इस दुनिया में आना चाहूँ
एक कली हूँ फूल बनने से पहले मैं नहीं मुरझाना चाहूँ
मैं ना बनूँगी तेरे कंधे पर जिम्मेदारी ना करुँगी भूल कोई भारी
चाहूँ झूलूं पलने में भी हंस हंस कर तो माँ आने दे ना मेरी भी बारी
घर की लक्ष्मी बन कर मैं आऊंगी तेरे आँगन को महकाउंगी
कर अपने परिवार के नाम को रौशन मैं अपना फ़र्ज़ निभाउंगी

तू मेरे आने पर रोक लगाएगी तो
समाज में गुनाहगार कहलाएगी

बिटिया ना दे मुझे समाज की दुहाई
इस समाज ने ही तो है सारी आग लगाई
बिटिया मैं तुझे अपनी गोद बिठाना चाहूँ
बिटिया मैं तुझे अपने गले लगाना चाहूँ
पर ये दुनिया नहीं तेरे लिए महफूज
बस यही एक उपाय रहा मुझे सूझ
समाज में ठेकेदार बड़े हैं दहेज़ के लोभी सर पर खड़े हैं
यहाँ कदम कदम पर हार है
देह के ठेकेदरो के लिए लड़की एक व्यापर है
इज्जत का अब कोई रहा ना मोल पैसे से रहे अब सब कुछ तौल
यहाँ दहेज़ के लालच में बेटियाँ जलाई जाती हैं
ऊपर से हो गरीबी की मार तो बिन ब्याही ही रह जाती हैं
लोलुप पुरुष बस गिद्ध की सी द्रष्टि रखता है
चाहे हो बेटी की उम्र की बस मौका मिलते ही झपटता है

तो बता क्यों ना मैं अपनी नन्ही को भुला दूँ
तो क्यों ना कोख में ही तुझे निंद्रा में सुला दूँ

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