Fursat ke pal

Fursat ke pal

Saturday 27 October 2012

इस धरा का श्रृंगार कर 
इसे सहेज संवार कर 
सहेज इस प्रकृति को 
तू इसे ही प्यार कर 

निज स्वार्थ की खातिर
जब यह सौन्दर्य ख़त्म किया
क्यों तूने जरा भी सोचा नहीं
हाय ये तूने क्या किया

कितने पंछियों का घर उजड़ा तूने
कितने वृक्षों को काट कर
कितने ही घर बना डाले
नदियों को भी पाट कर

याद रख प्रकृति जब
विनाश लीला खेलती है
नष्ट हो जाता है सब
पल भर के ही खेल में

कितने ही घर बह जाते हैं पल में
जब नदी आती है उफान पर
कितने ही घर ढह जाते हैं
हिलती है जब धरती जलजले के रूप में

तो याद रख बस याद रख
प्रकृति के साथ खेलना नहीं
सहेज इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए
अब इसे और छेड़ना नहीं

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