Fursat ke pal

Fursat ke pal

Saturday, 27 October 2012

वो अल्लहड़ बचपन की नादानी 
वो थोड़ी मस्ती वो थोड़ी शैतानी 
क्या वो पल फिर लौट नहीं सकते 
क्या फिर से हम बच्चे नहीं बन सकते 
मुझमें छिपी बच्ची कभी कभी बहार आ जाती है 
उचल कूद करती है जम कर
अपनों संग धमाल मचाती है
पल में बीत जाते हैं वो पल
जैसे बस पलक झपकाई हो
लगता है मिल सबको ऐसा जैसे
रुत बचपन की लौट कर आई हो
बच्चों सी ही खेल मैं रोज बच्ची बन जाती हूँ
दुनिया की इस भीड़ में मैं कुछ अपनों को पा जाती हूँ

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