Fursat ke pal

Fursat ke pal

Saturday, 27 October 2012

आज मैं अपने सपनो को सच बनाने चली 
आज मैं अपने अरमानो की पतंग फिर से उड़ाने चली 
पकड़ लूँ ऊँचे उड़ उन पलों को जो 
कभी चल पड़े थे दूर मुझसे अनदेखी से मेरी 
थाम लूँ या समां लूँ खुद में सपनो को अपने 
या फिर अपनी आशाओं को एक नयी उड़न दे दूँ
आज विचलित है मन कुछ परेशां सा न जाने क्यूँ
कुछ अधूरे सपने आज मेरे पूरे होने को हैं लेकिन
सोचती हूँ कितने स्वार्थी हो जाते हैं हम
सपनो की लम्बी कतार लम्बी ही होती चली जाती है न जाने क्यूँ
वक्त पंख लगा कर उड़ता चला जाता है अपनी ही रफ़्तार से
और मैं अपनी खिड़की में बैठ अपने सपनो का दिया जला
बस उसे ही तेल देने में लगी रहती हूँ
न तो दिया ही बुझने देती हूँ न तेल ही ख़त्म होता है मेरी आशाओं का
और मेरे सपनो की वो लम्बी कतार रूपी मेरी बाती
जो कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती
होगी भी कैसे ...मैं होने दूंगी तब ना !!!!

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